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साधू सदा सुहागन होते हैं। उनका सिंदूर कोई मिटा नहीं सकता।
वाराणासी । “मानस सिंदूर” रामकथा के आज के तीसरे दिन के आरंभ में पूज्य बापू ने बताया कि जिस ‘परमसाधू ग्रंथ’ को लेकर मैं दुनिया भर में घूमता हूँ, उस रामचरितमानस में तेरह लालसाएँ बताई गई हैं और वे उत्तम लालसाएँ हैं, जो नाश नहीं करतीं बल्कि सृजन करती हैं।
पूज्य बापू ने इस संदर्भ में “मानस लालसा” विषय पर कथा करने का मनोरथ व्यक्त किया। एक श्रोता ने पूछा कि “बापू! आप दोबारा काशी आएंगे?” बापू ने बताया कि “मैं दोबारा काशी में अवश्य आऊँगा और जब आऊँगा, तब ‘मानस कबीर’ लेकर आऊँगा।”
बापू ने कहा कि – “मैं तो महादेव का आश्रित हूँ। वे बुलाएँगे तो तुरंत ही मैं काशी आऊँगा।” बापू ने सूत्रपात करते हुए कहा कि “मौन रहना कायरता नहीं है, चुप रहना भय नहीं है, चुप रहने का मतलब हारना नहीं है।”
“मेरे साथ केवल सत्य है और सत्य के साथ भीड़ नहीं होती, पीड़ा होती है!” पूज्य बापू ने यहाँ कबीरजी को उद्धृत करते हुए कहा कि कबीर कहते हैं कि “मुझे कोई विधवा नहीं कर सकता, क्योंकि मैं तो राम की दुल्हन हूँ।”
बापू ने बताया कि, “जिसका नाथ परमात्मा हो, उसके सिंदूर को कोई मिटा नहीं सकता! मेरा नाथ विश्वनाथ है – भूतनाथ है! मेरा नाथ यदुनाथ है, व्रजनाथ है! मेरा नाथ रघुनाथ है!” कुछ लोग कबीर और तुलसीदासजी की विचारधारा के बीच भेद खड़ा करते हैं। इस बारे में बापू ने कहा कि, “जो बड़े होते हैं, उनमें कभी आपस में तकरार नहीं होती, समन्वय होता है – संवाद होता है।
आप साधु की आबरू, प्रतिष्ठा या प्रगति भले ही चुरा लें, पर उनकी प्रसन्नता को कभी नहीं चुरा सकते।
भगवान शिव विश्वास हैं और हम सब विश्वासी लोग हैं। भरोसे का कोई पैमाना नहीं होता। वहाँ पहुँचने के बाद भी अगर चूके, तो फिर नीचे गिर जाते हैं! किसी से अपेक्षा न रखें – गुरु से भी नहीं! बस, केवल भरोसा रखें।
साधु सदा सुहागन होते हैं। उनका सिंदूर कोई मिटा नहीं सकता। सौराष्ट्र में कहते हैं कि सिंदूर पिलाने से व्यक्ति की आवाज़ बंद हो जाती है। लेकिन साधु को सिंदूर पिलाने पर भी आप उनकी आवाज़ को बंद नहीं कर सकते, क्योंकि उस आवाज़ में सत्य है। और दूसरी बात यह कि सत्य मुखर नहीं होता, मौन होता है। फिर भी साधु जब बोलते हैं तो प्रिय और मधुर बोलते हैं।
बापू ने कहा कि इच्छा और आशा बंधन हैं। अगर इच्छा पूरी होती है, तो अहंकार आता है और अगर इच्छा पूरी नहीं होती, तो डिप्रेशन आता है। बापू ने कहा कि लालच अच्छा नहीं है, उसमें लार टपकती है! परंतु लालसा उत्तम है। लालसा प्रेम मार्ग का – भक्ति मार्ग का प्रिय शब्द है।
बापू ने कहा कि यदि आप अन्य इच्छाओं को छोड़ भी दें, तो भी आपके मन में तीन इच्छाएँ होनी चाहिए। एक, पुनः जन्म लेने की इच्छा – बार-बार जन्म लेने की इच्छा। यह मेरा अपना मत है। व्यक्तिगत रूप से मैं मुक्ति नहीं चाहता, मुझे मुक्ति से भी अधिक कीमती चीज़ चाहिए, भक्ति। भगवान महादेव ने भी रामजी से असीम भक्ति की इच्छा व्यक्त की है। भरतजी भी राम की भूमिका में “रति” के रूप में जन्म जन्म की इच्छा रखते हैं। नरसिंह मेहता कहते हैं कि “हरि के भक्त मुक्ति नहीं चाहते, वे जन्म जन्म अवतार चाहते हैं…”
शास्त्र कहते हैं कि जगत मिथ्या है। शंकराचार्य भगवान ने भी कहा है कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। नरसिंह मेहता कहते हैं कि जो वस्तु मिथ्या है, वह आपका क्या बिगाड़ लेगी? दाँत और नाखून के बिना सिंह से क्या डरना? जिसके पास गुरु के चरण का नख हो और जिसके पास दंतकथा नहीं बल्कि संत कथा हो, उसके लिए जगत मिथ्या नहीं है!
अपने दर्शन को आगे बढ़ाते हुए बापू ने कहा कि कर्म चित्त शुद्धि के लिए है, वस्तु की प्राप्ति के लिए नहीं। यदि कर्म करने के बाद भी चित्त बिगड़ जाए, तो लाखों का नफ़ा हो तो भी वह प्राप्ति नहीं है। जो कर्म चित्त को शुद्ध करे, वही कर्म आपको वस्तु की प्राप्ति कराएगा। लेकिन चित्त शुद्धि के बिना यदि वस्तु मिल जाए, तो वह वस्तु आपको कभी शांति नहीं दे सकेगी!
“मैं गार्गी और मार्गी दो परंपराओं के बीच बह रहा हूँ। जन्म से हम मार्गी साधु हैं और विष्णुगिरि दादाजी गार्गी मत के यानी वेदांती हैं। उन दो धाराओं के बीचमे मैं हूँ।”
बापू ने कहा कि जीवन की दूसरी इच्छा रखनी चाहिए: “सत्संग करते हुए, प्रसन्नता से जीना – ऐसे जीवन की इच्छा करनी चाहिए। भजन करने के लिए जीवन होना चाहिए। भजन की इच्छा जीवन को नवजीवन देती है।”
तीसरी इच्छा – जानने की इच्छा रखनी चाहिए। चार्वाक संप्रदाय का सूत्र है कि – “ऋणम् कृत्वा घृतम् पिबेत्” (कर्ज लेकर घी पियो)। इस सूत्र को नया रूप देते हुए बापू ने कहा कि – “श्रृणम् कृत्वा अमृतम् पिबेत्” यानी बुद्धपुरुष का श्रवण करके श्रवणामृत का पान करना, यह जीवन जीने का तरीका होना चाहिए।

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